विद्यापतिक आलोचना (आलेख) - रवि भूषण पाठक - समस्‍तीपुर (बिहार)

विद्यापति आ मैथिली के लs के हिन्दी मे आरम्भहि सँ एकटा अंतर्विरोध व्याप्त अछि ! एकर मूल विषय अछि मैथिली आ हिन्दी क सम्बन्ध क देशीभाषापरिवार मे निर्धारण ! मैथिली के हटेला सँ हुनकर समावेशी या सर्वलपेटू सिद्धांत प्रभावित होइत अछि! मैथिली के राखला सँ मैथिलीक प्राचीनता आ एकर गौरवशाली साहित्यिक परम्परा हुनकर चालू फार्मूला के अस्तव्यस्त करैत अछि !

सर्वप्रथम आचार्य रामचन्द्र शुक्ल द्वारा लिखित ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ (संवत1986) पर चर्चा कएल जाए ! एहि पुस्तक क वीरगाथाकाल अध्याय मे विद्यापति क चर्चा मुख्यतः दू ठाम अछि ! ‘अपभ्रंश काव्य‘ मे अपभ्रंश साहित्य मे प्रयुक्त छंद आ उदीयमान भाषा क वैशिष्टय क जानकारी अछि !
दोसर ठाम अछि ‘वीरगाथा काल‘ मे ‘फुटकल रचनाऐं‘ मे अंकित टिप्पणी ! एहि ठाम आलोचकक प्रथम उददेश्य अछि मैथिली भाषा के अधीनस्थताक घोषणा ! ताहि दुआरे सर्वप्रथम हिन्दी साहित्यक विस्तार मे मैथिली आ विद्यापति क सम्मिलित क लेल जाइत अछि ! तत्पश्चात विद्यापति काव्यक विषय मे लेखक तीन-चारि टा मोट बात कहैत छथिन्ह...

1 कवि क अधिकांश पद श्रृंगारिक अछि,जाहि मे नायक नायिका राधा-कृष्ण छथि !

2 एहि पद क रचना संभवतः जयदेव क गीत काव्य क अनुकरण पर कएल गेल अछि !

3 पदावली क मूल दृष्टि श्रृंगारिक अछि,एहि पर आध्यात्मिकता या भक्ति क आवरण देनए ठीक नहि !

आचार्य शुक्लक आलोचना क एहि एकांगिता क मुख्य कारण अछि, हुनकर प्रबन्ध क प्रति विशेष आग्रह ! एहि आग्रह क निहितार्थ अछि तुलसी आ जायसी क बड़का कवि सिद्ध केनए ! संदर्भित कवि नमहर कवि छथि, मुदा आलोचक क
कमजोरी विद्यापति आ कबीर के जबर्दस्ती कमतर करए मे स्पष्ट अछि ! अपभंश काव्य आ विद्यापति पदावली के सम्बन्ध मे हुनकर कम जानकारी सेहो आलोचना के प्रभावित करैत अछि ! अंतिम कारण अछि अवधी आ ब्रजभाषा क काव्य क प्रति आलोचक क अतिरिक्त स्नेह आ आग्रह !

शुक्ल जी ’लोकमंगल‘ क एकटा खास काव्य दृष्टि के प्रति आग्रही छथि ! अतः हुनकर समस्त लेखन क एकटा खास रंग अछि ! एहि लेखन मे विद्यापति आ कबीर क एकटा सीमित स्थान अछि ! एहि लेखन क कमजोरी पर सबसँ धारदार आक्रमण आचार्य हजारी प्रसाद द्वारा भेल !

द्विवेदी जीक लेखन पर शांति निकेतन आ गुरूदेवक विचार क विशेष प्रभाव अछि, ताहि दुआरे हिनकर प्रारंभिक लेखन मे विद्यापति काव्य के समझए - बूझए क दिशा मे गंभीर प्रयास क चिह्न भेटाइत अछि ! ’सूरसाहित्य‘ मे जयदेव, विद्यापति, चण्डीदास आ सूरदासक राधा क तुलना कएल गेल अछि ! राधाक विलास-कलामयी, किशोरी, वयःसन्धिसुषमा, अर्द्धोद्भिन्न उरोज पर द्विवेदी जी मोहित होइत छथि ! मुदा ई लेखन विद्यापति पदावली क केन्द्रीय भावक दिश कोनो संकेत नहि करैत छैक !

लेखकक उद्देश्य अछि सूर साहित्यक महत्वक उद्घाटन ! प्रसंगवश लेखक किछु बांग्ला लेखक क चर्चा करैत छथि ! रवीन्द्र नाथक एकटा महत्वपूर्ण उद्धरण अछि ”विद्यापति क राधा मे प्रेमक तुलना मे विलाश बेशी अछि, एहि मे गम्भीरताक अटल धैर्य नहि ! एहि मे मात्र नवानुरागक उद्भ्रान्त लीला आ चांचल्य अछि ! विद्यापतिक राधा नवीना छथि, नवक्स्फुटा छथि ! “ई राधा महिमा एकटा बांग्ला लेखक दीनेश बाबू सेहो गाबैत छथि” विद्यापति वर्णित राधिका एकाधिक चित्रपट क समष्टि अछि !

जयदेवक राधा सदृश एहि मे शरीरक भाग ज्यादा आ हृदयक भाग कम अछि !

विद्यापति क राधा अत्यन्त सरला अछि ,अत्यन्त अनभिज्ञा ! द्विवेदी जीक उपरोक्त लेखन शुक्ल जीक विद्यापति सम्बन्धी मान्यता मे कोनो परिवर्तन करबाक प्रयास नहि करैत अछि ! हिनकर परवर्ती लेखन शुक्लवादी मान्यताक पोषण करैत अछि ! कबीर आ इतिहास सम्बन्धी मान्यताक सम्बन्ध मे हिनकर जोश विद्यापतिक सम्बन्ध मे अनुपस्थित अछि, यद्यपि ई विद्यापतिक कविता आ व्यक्तित्वक बेहतर जानकार छथि ! इतिहास सम्बन्धी हिनकर पोथी ‘हिंदी साहित्य:उद्भव और विकास‘ मे कीर्तिलता पर दू पृष्ठ अछि आ पदावली पर मात्र चारि पांति ! ई स्पष्ट करैत अछि जे लेखक क मंतव्य की अछि !

सगुण भक्ति परंपराक आख्यान क बीच मे विद्यापतिक झूठफूसिया चर्चा सँ खानापूरी कएल गेल अछि ! लेखक विद्यापति कें सिद्धवाक् कवि कहैत छथिन्ह आ पदावली मे वर्णित अपूर्व कृष्णलीलाक संकेत दैत छथिन्ह ! भावक सांद्रता आ अभिव्यक्तिक प्रेषणीयताक स्वीकारैत लेखक ई टिप्पणी देनए आवश्यक बूझैत अछि कि एहि परंपरा क प्रभाव संभवतः ब्रजभाषा काव्य परंपरा पर किछु नहि पड़ल !

एकटा बात विचारनीय अछि द्विवेदी जी सन कद्दावर आलोचक तक शुक्लवादी मान्यता क विरोध नहि क सकल ! एकर की कारण ? द्विवेदी जी कतिपय प्रसंग मे शुक्ल जी सँ पंगा ल लेने छलाह, ताहि दुआरे ओ विद्यापति पदावली क सम्बन्ध मे यथेष्ठ ध्यान नहि देलाह ! अवधी आ ब्रजभाषा काव्य परम्पराक प्रति तुलनात्मक स्नेह सेहो हिनका एहि दायित्व सँ वंचित कएलक ! एहि बीच मे अन्य रचनाकारक टिप्पणी सब आबैत रहल ! राम कुमार वर्माक एकाक्षी दृष्टि मे विद्यापति काव्य मे आंतरिक सौंदर्य क अपेक्षा बाह्य सौंदर्य क प्रधानता अछि !

स्वातंत्रयोत्तर परिदृश्य मे विद्यापति क सम्बन्ध मे बेहतर समझ विकसित भेल ! राम विलास शर्मा विद्यापति काव्य के सम्बन्ध मे कम जानकारीक बावजूद ई बात बूझि सकलाह कि ओ नवजागरणक अग्रदूत छलाह ! तहिना राम स्वरूप चतुर्वेदी अपन ग्रंथ ‘हिंदी साहित्य और संवेदना का विकास ’ मे शुक्ल जी द्वारा प्रतिपादित लौकिक आ आध्यात्मिक फांस के काटि पाबैत छथि !

आचार्य शुक्ल एहि ठाम ओहि अनुभव तक नहि पहुँचैत छथि कि पदावली अपन श्रृंगारिक भावनाक साथ वास्तव मे ऐहिक अछि आ तन्मयता क गंभीर अनुभूति ओकरा आध्यात्मिक स्तर पर रूपांतरित करैत अछि ......

काम भाव आ शरीरक सौंदर्य हुनका ओहि ठाम उत्सव रूप मे अछि ! ताहि दुआरे ई चिर परिचित होइतहुॅ चिर नवीन अछि ! ई चतुर्वेदी जीक ईमानदारी छल कि हुनका पदावली मे सद्यःनवीनता क गंध मिल ! मुदा लेखक अवांछित संक्षिप्तता मे अपन काज चलाबैत अछि ! ई पुस्तक त मानि के चलैत छैक जे रचना काशी आ आलोचना प्रयाग मे होइत छैक !

शिव प्रसाद सिंह हिंदी आलोचनाक एहि एकांगिता के नीक जँका चिन्हैत छथि ! अपन पुस्तक ’विद्यापति‘ मे ओ विद्यापति आ पदावली क सौन्दर्य के काव्यशास्त्रीय दृष्टिकोण सँ देखैत छथि ! ओ विद्यापति के अपरूपक कवि मानैत छथि !

“सौन्दर्य हुनकर दर्शन अछि आ सौन्दर्य हुनकर जीवन दृष्टि ! एहि सौन्दर्य के ओ नानाविधि देखलाह, आ कुशल मणिकारक तरह चुनलाह, सजा के, सँवारि के आलोकित कएलथि” एहि सौन्दर्य क विश्वव्यापी रूपक ओ परख करैत छथि आ जायसी क ग्रंथ ’पद्मावत‘ सँ पदावलीक सौन्दर्यक तुलना करैत अछि ! पद्मावतीक दिव्य स्पर्श सँ सभ वस्तु अभिनव सौन्दर्य धारण करैत अछि ! लेखक मानैत अछि कि विद्यापति क राधा क अपरूप सेहो ई पारस अछि ! हुनकर अभिमत अछि “आश्चर्य होइत अछि जे जायसी सँ सौ वर्ष पूर्व विद्यापति जाहि पारस रूप क चित्रण कएल, ओहि पर ककरो ध्यान नहि गेल, एकरा विद्यापतिक अभाग्य कहल जाए”

डॉ0 सिंहक अवलोकन विन्दु प्रशंसनीय अछि, मुदा ई अभाग्य त हिन्दी आलोचनाक अछि, विद्यापतिक नहि ! मैनेजर पांडेय अपन पोथी ’भक्ति आंदोलन और सूरदास का काव्य’ मे विद्यापति पर किछु चर्चा करैत छथि ! पुस्तकक शीर्षक सँ स्पष्ट अछि जे विद्यापति नामक सीढ़ी क प्रयोग केवल सूरदास तक जएबाक लेल कएल गेल अछि ! तथापि एहि किताब मे गीतिकाव्य आ विद्यापतिक सम्बन्ध मे किछु महत्वपूर्ण जानकारी अछि !

लेखक कहैत छथिन्ह “विद्यापतिक पद मे सौंदर्य चेतनाक आलोक भावानुभूतिक तीव्रता घनत्व एवं व्यापकता आ लोकगीत तथा संगीतक आंतरिक सुसंगति अछि” लेखक विद्यापति आ सूरदास दूनू के भक्ति कवि मानैत हुनका जन संस्कृति क रचनाकार मानैत छथि !

विद्यापति आ हिन्दी आलोचना नामक ई निबन्ध एहि दृष्टि क मांग करैत अछि कि विद्यापति पर मौलिक दृष्टि सँ काज हो !
ई प्रश्न हिन्दी आ मैथिलीक नहि छैक, बल्कि समस्त भारतीय साहित्यक अछि ! विद्यापति सन मौलिक रचनाकार क जानबा-समझबाक लेल साधारण दृष्टि नहि आलोचनाक तत्वान्वेषी दृष्टि चाही .......


बड़का रचना क लेल बड़का रचनात्मक साहस आ बड़का ईमानदारी क आवश्यकता होइत छैक !

विद्यापति पदावलीक विषय मे इएह साहस स्पष्ट ढ़ंग सँ उजागर होइत अछि ! ‘दुखहि जनम भेल,दुखहि गमाओल ,सुख सपनहु नहि भेल’ ई पंक्ति विद्यापति पदावली मे निहित औदात्यक संकेत दैत अछि ! संपूर्ण मध्यकालीन काव्य मे दुखक अबाध स्वीकृति आ सुख के सपना मे अएबाक दारूण रूपक अनुपस्थित अछि ! हे आलोचकगण ! मध्यकालीन भारतक सामंती शासन आ समाजक वास्तविक रूप देखबाक साहस हो त विद्यापति पदावली फेर सँ पढ़बाक प्रयास करू !

ई सत्य अछि कि ओहि मे श्रृंगार रसक बेगवती धारा बहि रहल छैक ! आ किछु आलोचक ओहि मे स्नानहि के जीवन बूझ‘ लागैत छथिन्ह ! हमरा श्रृंगार रसक तीव्रता, गांभीर्य स्वीकार्य अछि ! श्रृंगार रस मे निहित एकाग्रता आ स्थायित्व अन्यत्र अनुपलब्ध अछि ! हमरा कहबाक मतलब अछि कि विद्यापति अपन श्रृंगार रसक कविता कहबाक लेल मैथिली मे रचना नहि केलाह ! तथापि विद्यापति पदावलीक कोनो आलोचक श्रृंगार मे भसबा आ फसबा सँ नहि बचलाह ! वयःसन्धिक नायिकाक ई लावण्य देखि की कविकुलगुरू रवीन्द्रनाथ आ की आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी सभ गोटे मोहित छथि..

सैसव जोबन दुहु मिलि गेल !
स्रवनक पथ दुहु लोचन भेल !!

वचनक चातुरि लहु-लहु हास !
धरनिये चाँद कएल परगास !!

मुकुर हाथ लए करए सिंगार !
सखि पूछए कइसे सुरत-बिहार !!

निरजन उरज हेरत कत बेरि !
बिहुंसए अपन पयोधर हेरि !!

ताहि दुआरे गुरूदेव के विद्यापतिक राधिका परमनवीना बूझाइत छन्हि ! हे गुरूदेव हमर एहि भ्रांति के दूर करू कि ई राधिका पदावलीक विस्तृत आकाश मे प्रगल्भे किएक रहि जाइत छैक, ओकरा मे प्रौढ़ता किएक ने आबैत छैक ! अहाँ कहब जे प्रौढ़ राधाक रचना केनए कविक लक्ष्य नहि छल या राधाक प्रौढ़ताक एक दू टा कविता सुना देब ! हे गुरूदेव हमरा बताबू कि ओहि समय मे मिथिला यौवनोन्मत्त नारी सँ वंचित छल ?! विद्यापति त भरि जिनगी घूमिते रहलाह ! कि नेपाल, जौनपुर आ बंगाल तक मे हुनका प्रौढ़ दर्शन नहि भेल?, ओ स्वयं भरपूर जिनगी आ भरि उमरि जीलाह ! हुनका श्रृंगारक विविध रूप आ दशा के बतायत? हमर एहि ठाम तुच्छ आग्रह अछि कि अपन तमाम योग्यता आ जीवनानुभवक बावजूद ओ श्रृंगार रसक
क्षयोन्मुख प्रभाव के बूझलाह ! ताहि दुआरे एहि अंतरंग रसक आनन्द लइतहु, एकरा चरम लक्ष्य नहि बनेलाह !

विद्यापति चौदहम - पंदरहम शताब्दी मे छलाह ! संस्कृत काव्यशास्त्रक सब प्रमुख आचार्य एहि समय मे लिखि लेने छलाह आ मम्मटाचार्य विभिन्न असहमतिक बावजूद ‘साहित्यदर्पण’ मे व्यापक सहमति बनएबाक प्रयास केलाह ! विद्यापति एहि प्रयास सँ अवगत छलाह ! श्रृंगार रसक राजत्व के सम्बन्ध मे हुनका मन मे कोनो संशय नहि छल ! मुदा तत्कालीन लेखन मे व्याप्त रीतिवाद आ कादो मे पड़नए ओ उचित नहि बूझलाह ! हुनकर अवहट्ट आ मैथिलीक दिश प्रयाणक सबसँ महत्वपूर्ण कारण छल जनोन्मुख भाषा आ टटकापन के स्वीकार केनए ! अपन समयक बंजरपन के लक्ष्य करैत कवि कीर्तिलता मे कहैत छथि....

अक्खर रस बुज्झि निहार नहि कवि कुल भमि भिख्खरि भऊं !

मतलब ई जे अक्षर रसक मर्मज्ञ केयो नहि बचल, कवि सब घूमि घूमि के भीखमंगा भए गेलाह !

मिथिला अंचल मे नवविकसित भाषाक प्रति विद्यापतिक उत्सुकता आह्लादित आ चकित करैत अछि ! कीर्तिलता मे एकटा आन स्थान पर ओ कहैत छथि...

सक्कअ वाणी बुहअण भावइ पाइअ रस को मम्म न पावइ !
देसिल बयणा सब जन मिट्ठा,तें तैसन जंपउ अवहट्टा !!

मतलब ई जे संस्कृत के पंडिते नीक जँका बूझैत छथि, प्राकृत भाषाक रस केयो नहि पाबैत अछि ! देशी बोली सब के नीक लागैत अछि, ताहि दुआरे हम अवहट्ट बाजि रहल छी ! विद्यापति भाषा के संगहि समाजक नवीनता के सेहेा संकेत करैत छथिन्ह...

हिन्दू तुलुक मितल वास,
एकक धम्मे ओकाक हास !
कतहु बाँग,कतहु वेद
कतहु विसमिल कतहु छेद
कतहु ओझा कतहु खोजा
कतहु नकत कतहु रोज
कतहु तम्बारू कतहु कूजा
कतहु नीमाज कतहु पूजा
कतहु तुलुका बल कर
बाट जाएते बेगार धर !!

कीर्तिलता मे अवहट्ट के संगे मैथिलीक ई प्रयोग ओते आश्चर्य उत्पन्न नहि करैत अछि, जतेक आश्चर्य उत्पन्न करैत अछि विद्यापतिक नवीन सामाजिक स्थितिक प्रति सजगता ! हिंदी विद्वान अंबा दत्त पंत आ मैथिली - हिंदी के शताधिक विद्वान विद्यापति काव्य मे श्रृंगारक विभिन्न दशा के खोजि-खोजि बूड़िया गेलाह ! विद्यापति काव्यक नायिका के वक्षाकार देखि देखि के आलोचक सभ मस्त छथि ! ओ बैर अर्थात वदरीफल सँ बेलक यात्रा मे निर्वाण क रहल छथि !

पहिल बदरि कुच पुनरंग !
दिने दिने बाढय पिड़ए अनंग !!

से पुन भए गेल वीजक पीर !
अब कुच बाढ़ल सिरिफल जोर !!

माधव पेखल रमनि संधान !
घाटहि भेटल करत सिनान !!

सुखद अछि कि विद्यापतिकाव्य मे विद्वान लोकनि नारियल, टाभनेबो आ तरबूजा नहि खोजलाह, यदि ई सब फल हुनका मिलि जायत, तखन फेर आलोचक महोदयक आनन्द क कल्पना नहि कएल जा सकैत अछि ! मित्र गौरी शंकर चौधरी कहैत छथिन्ह
फल आ तरकारी मे संकर(हाईब्रिड) क कल्पना केनए विद्वान लोकनि बिसरि गेलाह, नहि त विद्यापति काव्यक असफलता पर दू-चारि टा पी0एच0डी0 आउर संभव छल !

कहबाक तात्पर्य ई जे श्रृंगारिक वर्णन मे ई सब परंपरा रूप मे आबि गेल ! उरोज, नितंब, कटि, जांघ, त्रिबलीक दर्शन कतहु कतहु परिस्थितिवश आ कतहु सायास भ गेल अछि; मुदा विद्यापतिक कवित्वक ई केन्द्रीय स्थल नहि अछि !

विद्यापति पर तत्कालीन काव्य परंपराक प्रभाव अछि ! ई समय अछि संस्कृत साहित्य मे अमरूक कृत ‘अमरूक शतक’, भर्तृहरि कृत‘श्रृंगारशतक’जयदेव कृत‘रतिमंजरी’ गोवर्द्धनाचार्यकृत’आर्यासप्तशती’‘श्रृंगारतिलक’(कालिदास)क अनुकरण क ! कवि लोकनि जी जान सँ शतक(सेंचुरी) बनएबा मे व्यस्त भ गेलाह ! ई समय छल काव्यरूप, छंद,भाव, भाषा सब क्षेत्र मे अनुकरणक ! संस्कृत साहित्य मे ई रचनात्मकताक दृष्टि सँ उल्लेखनीय समय नहि छल ! विद्यापतिक संस्कृत साहित्य पर सेहो ई प्रभाव देखल जाइत छैक !

कवि एहि सब प्रभावक अतिक्रमण अपन अवहट्ट आ मैथिली रचना मे करैत अछि ! व्यक्ति के अपन नाम केहन नीक लागए छैक, मुदा कवि विद्यापति अपन नाम सेहो लोकभाषा आ उच्चारण के तर्ज पर बदलि लैत छथि....

बालचंद विज्जावइ भासा दुहु नहिं लग्गइ दुज्जन हासा !
सो परमेसर सेहर सोहइ,इणिच्चइ णाअर मन मोहइ !!

उत्तर सामंतवादी भारत मे रहए वला विद्यापति अपन समय आ इतिहासक क्रूर गर्जन सँ व्यथित छलाह ! सामंती शासन के नजदीक सँ देखए वला विद्यापति तत्कालीन राजनीतिक नपुंसकताक बड्ड नीक जँका परखैत छथिन्ह ! राजदरबार मे रहए वला राजकवि राजा आ राजपरिवार क कमजोर नस पर कुशलतापूर्वक हाथ राखैत छथि ! हजारी प्रसाद द्विवेदी कीर्तिलता के विषय मे कहैत छथिन्ह “एहि मे इतिहास क कविदृष्ट जीवंत रूप अछि ! एहि मे ने काव्य के प्रति पक्षपात अछि ने इतिहासक उपेक्षा !”
जाहि विद्वान के तुलसीकृत रामचरितमानसक उत्तर काण्ड मे कलियुगक प्रताप देखाइत छैक, ओ कृपाक के कीर्तिलताक चित्रण देखि लेथु !

बिकाए आए राज मानुसकरी पीसि वर आगे आंग डगर
आनक तिलक आनका लाग पात्रहूतह परóीक वलआ माँग!
ब्राहमणक यज्ञोपवीत चांडाल का आ गल!
वेश्याह्नि पयोधरे जतिहि क ह्रदय चूर !
धन संचरे धोल हाथि हति बापर चूरि जाथि !
आवर्त्त विवर्त्त रोलहो नगर नहि नर समुद्दओ !!

यद्यपि ई जौनपुर नगर क वर्णन अछि, मुदा ऐतिहासिक प्रमाण अछि कि मिथिलाक स्थिति सेहो एहने छल ! एक अन्य स्थान पर विद्यापति जाति व्यवस्था मे विघटनक चिह्न देखि रहल छथिन्ह जति अजाति विवाह अधम उत्तम का पाँरक परिवर्तन के एते नजदीक सँ देखए वला धर्म आ दर्शन क स्थायित्व मे कते विश्वास करत ! मुदा, विद्यापतिक पदावली मे धर्म क उच्च कोटि क दर्शन होइत अछि !

किछु विद्वान विद्यापति रचनावली मे धर्म आ अध्यात्म खोजए वला क दिश लाठी ल के दौड़ए छथि ! आचार्य शुक्ल पदावली मे श्रृंगारिकता पर बल दैत, एकरा अनिवार्यतः ऐहिक घोषित करैत छथि ! ओ व्यंग्य करैत कहैत छथि “आइ-काल्हि आध्यात्मिकता क चश्मा सस्ता भ गेल छैक ! ओ पहिन के किछु लोग ’गीतगोविन्द‘ के साथहि पदावली मे आध्यात्मिक संकेत देखैत छथि ” शुक्ल जी पदावली के श्रृंगारिक साबित करए पर तूलि गेलाह ! मुदा परवर्ती आलोचना मे ई कहल गेल कि श्रृंगार भावना मे तन्मयताक गंभीर अनुभूति आध्यात्मिकता मे रूपांतरित भ जाइत छैक ! एहि सहमतिक बावजूद किछु लोग शुक्लजीक निष्कर्ष के नहि मानबा मे पाप बूझैत छथि !

एहने एकटा विद्वान छथि आदरनीय खगेन्द्र ठाकुर जी ! एक टा आलेख मे ओ कहैत छथिन्ह जे भक्ति भावना होइतहु ओ भक्ति आंदोलन के अंग नहि छथि ! हमरा ओहि तथाकथित आंदोलन सँ विद्यापति के जोड़बा मे कोनो रूचि नहि ! मुदा एकटा बात स्पष्ट अछि पदावली मे भक्ति भाव क अद्वितीय स्थल अछि ! विद्यापतिक धार्मिकता एहि माने मे अद्भुत अछि कि ओ कोनो संस्थानक लेखक नहि छथि ! एहि दृष्टि सँ हुनकर भक्ति भाव कोनो मठक ध्वजा ल के नहि चलैत अछि ! साम्प्रदायिकताक एहि अनुपस्थिति पर ध्यान नहि देल गेल ! राधा-कृष्ण के साथहि भगवान शंकर, पार्वती, गंगा आ भैरवीक ओ स्तुति करैत छथि ! ई धार्मिकता सब के साथ ल के चलए वला धार्मिक भावना अछि ! ई धार्मिकता धन-संपत्ति आ यशक लेल नहि छैक ! एकर मूल उद्देश्य अछि दुनिया सँ आसुरी वृत्ति क नाश.....

जय -जय भैरवि असुर भयाओनि, पशुपति भामिनि माया !

एहि कविता के आलोचक गण निरालाक प्रसिद्ध कविता ’राम की शक्ति पूजा‘ क ओहि अंश सँ तुलना करथि, जाहि मे भगवान राम क शक्ति पूजा सँ प्रसन्न भगवतीक उदय होइत अछि ! विद्यापतिक कविता धर्म के खाल जँका नहि ओढ़ैत अछि, ई भारतीय धर्म भावना के उच्च आदर्श के अनुकूल अछि ! हिन्दीक रीतिकालीन कविता जँका एकरा मे कोनो द्वयर्थकता नहि अछि ! रीति कविताक धार्मिकताक मूल मे अछि कविक विलास भावना मे छिपल अपराध भाव ! एहि डर सँ ओ भगवानक नाम लैत छथि ! एकटा कवि कहैत छथिन्ह यदि सूतरि जायत त कविता बूझब नहि त राधा कृष्ण क स्मरण एकटा बहाना अछि ! विद्यापति पदावली मे एहि द्वैधताक लेल कोनो स्थान नहि ! एहि मे भक्तक कातरता, ओकर दैन्य, आत्मसमर्पण आ अनन्य निष्ठा निहित अछि !

विद्यापति भक्ति या श्रृंगार दूनू भावना के प्रकृति के मुक्ताकाश मे देखैत छथिन्ह, ताहि दुआरे एहि मे मिथिलाक प्राकृतिक सुषमाक
अद्भुत दर्शन होइत अछि ! एहि अन्हार पीबए वला सूर्यक तेज सँ अन्यत्र परिचय नहि भेटत...

ए री मानिनि पलटि निहार ! अरून पिबए लागल अन्हार !

प्रेम आ माधुर्य मे डूबल प्रकृति कतहु सादृश्यमूलक अलंकार के रूप मे प्रकट होइत अछि, पहिल बदरि सम पुन नवरंग ! आ कतहु विम्ब क रूप मे जइसे डगमग नलिनि क नीर ! तइसे डगमग धनि क शरीर !!

वसंत गीतक सौन्दर्य त कोनो भारतीय भाषा मे नहि मिलत ! “नवल वसंत नवल मलयानिल मातल नव अलि कूल ”
एहि कविताक तुलना निरालाक सरस्वती वन्दना सँ करब तखन महाकवि विद्यापतिक मौलिकताक पता चलत ! पता नहि कोन आलोचक विद्यापति के अभिनव जयदेव कहने छल ! एहि सँ अधलाह उपमा आ उपनाम साहित्य जगत मे दोसर कोनो नहि देल गेल ! गीतगोविन्द मे जयदेव कहैत छथिन्ह...

यदि हरिस्मरणे सरसं मनो यदि विलासकलासु कुतूहलम् !
मधुरकोमलकान्तपदावलीं श्रृणु तदा जयदेवसरस्वतीम् !

अर्थात यदि हरि स्मरण मे मन सरस हो, यदि विलास-कला मे कुतूहल हो, तखन जयदेव क मधुर कोमल, कान्त पदावली के सुनु ! विद्यापति त अपन पदावली के सम्बन्ध मे कोनो एकरस घोषणा नहि कएलथि, तैयो विद्यापति के केवल श्रृंगार सँ जोड़नए विद्यापति के कमतर करए के प्रयास अछि ! विद्यापति के श्रृंगार आ भक्ति के कवि के रूप मे देखु, कोनो दिक्कत नहि, मुदा ओ साहित्य क वृहत्तर प्रयोजन के लs के चलैत छथिन्ह ! तखने विद्यापतिक कविता मे छितराएल विशाल दर्द के अनुभव क सकब ! राधाक प्रतीक्षा मिथिला के आम नारी वर्गक प्रतीक्षा अछि !

सामंतवाद पुरूष आ स्त्री के अलग - अलग संस्कार देलकए ! ओहि संस्कार मे नारीक लेल छलए अंतहीन प्रतीक्षा ! एहि प्रतीक्षारत नारी के कनैत - खीजैत आ स्वयं के मनाबए के कतेको चित्र सँ पदावली भरल अछि ! कखन हरब दुख मोर हे भोलानाथ ! पद मे दुखक विशाल व्यंजना अछि ! जन्म सँ मृत्यु तक दुखक सागर मे रहबाक तर्क विद्यापतिक नहि मिथिला के साधारण पुरूषक अछि ! ’दुखहि जनम भेल, दुखहि गमाओल‘क व्यंजना छह सौ साल बाद फेर एकटा कविक सकल, जकरा भारतीय साहित्य निराला नाम सँ जानैत अछि ! ’दुख ही जीवन की कथा रही‘ पर लट्टू साहित्यिक वर्ग विद्यापतिक अर्थगर्भित कविता के जेना सामान्य धार्मिक कोटि मे राखि बिसरि जाइत अछि ! ई एकटा सांस्कृतिक शर्म के विषय अछि !

संस्कृत काव्यशास्त्र मानैत अछि जे महान रचना मे अर्थ क स्वाभाविक बहुस्तरीयता होइत छैक ! अतः रचनाक शरीर सँ नहि ओकर आत्मा सँ केन्द्रीय संवेदनाक पहचान होएबाक चाही ! विद्यापति मे साहित्य आ शास्त्रक सब मान्यता एमहर ओमहर भ गेल अछि, एहि ठाम आलोचना क लोकतांत्रिकता देखाइत अछि ! जकरा जे मून हो लिख दे आ पी0एच0डी0 क डिग्री ल ले ! वाह रे विद्यापति ! आ वाह रे विद्यापतिक आलोचना...

1 एक टिप्पणी दिअ।:

Unknown 25 अगस्त 2017 को 4:54 pm बजे  

Adbhut Jitmohan babu, Jay Baba Vidyapati

एक टिप्पणी भेजें

  © Vidyapati Geet. All rights reserved. Blog Design By: Jitmohan Jha (Jitu)

Back to TOP